1800 रुपए महीने की तनख्वा में गुजारा करना होता था, पर पैसे की कमी को परिवार के सुकूं ने भुला दिया था|
पैसा भले ही कम था फिर भी न कोई गम था! हसी ख़ुशी वो 5 साल कैसे कट गए पता ही नहीं चला| दुःख की तरह सुख भी कहा हमेशा रहता है, तो फिर छूट गयी नौकरी और आ गए वापस गाँव में रहने! अगर मैं वहां से वापस नहीं आती तो फिरसे वही खींचतान शुरू नहीं होती और जिंदगी सुकून से कट रही होती! पर अगर दुःख नहीं आता तो फिर कैसे बन पाती मैं एक Strong Woman.
परिवार के ज़ुल्मों पर भारी मेरे संस्कार!
पर चाहे परिवार के लोगों ने मेरे साथ जो भी सितम किये हों, मैंने कभी बुजुर्गों का सम्मान और उनकी सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी| जब पति की नौकरी छूटने के बाद गाँव वापस आयी तो सालों तक झगड़े चलते रहे लेकिन दूसरी तरफ मेरे ससुरजी की सेवा में मैंने कोई कमी नहीं रहने दी| यूँ तो उनको भी हमसे कोई ज्यादा लगाव नहीं था पर वो और लोगों की तरह परेशान भी नहीं करते थे| उनके आखरी समय तक मैंने उनकी सेवा की|
जब ज़िन्दगी थी तब तो कोई प्यार दुलार नहीं मिला पर जाते जाते मेरे ससुरजी ने मुझे आशीर्वाद देते हुए अफ़सोस जताया की बहू मै तेरा क़र्ज़ कैसे चूका पाउँगा| उनको तो ये एहसास अंत में जाके हुआ पर परिवार के बाकी लोगों को तो कभी मेरी कदर ही नहीं हुई| मैंने कभी कोई चीज़ या पैसे की आशा किसी से नहीं की, बस थोड़ा प्यार और सम्मान की उम्मीद थी जो कभी नहीं मिला! ससुरजी के इस दुनिया से जाने के बाद चीज़ें और ख़राब होने लगी थी| आधी पेंशन से घर चलाना आसान था पर मेरी सास इसको कठिन बनाने लगी थी|
पर मेरे लिए अच्छी बात ये थी की मेरे दोनों बच्चे अब बड़े हो चुके थे और मेरा बेटा शहर में कमाने भी लगा था| हाँ बेटी की शादी की फ़िक्र ज़रूर थी पर मेरे पति की पीठ पर कमाने वाला बेटा था तो इतनी भी कोई चिंता से मरने वाली बात नहीं थी| और आखिरकार वो दिन भी आ गया जब मैंने अपनी बेटी की शादी कर दी और उसे विदा भी कर दिया। भगवान की कृपा से मेरे दोनों बच्चे अच्छी और खुशहाल जिंदगी जीने लगे। मेरे पति जो कुछ भी कमाते थे वो हम दोनों के लिए काफी था|
अब मेरा भी मन था की इस जंजाल से निकल कर पति के साथ शहर में शान्ति का जीवन जिऊँ, पर मेरे नसीब में सुकून तो…